अपने हाथों में वक्त की कुछ कालिख ले कर,
कोई सोया था।
सन्नाटे में उसके सपनो की गूँज बड़ी थी।
देखा तो कोने में, आज भी वो तनहा खड़ी थी।
कुलबुलाहट, मन की कुछ बेरुखे शब्दों का आँचल लिए थी।
मैं ने टोका, तो रंग बदल के समझदारी का परिचय दिया उसने।
मैं ने नासमझ बन कर कबूल किया तो,
एक "लकीर" खीच दी उसने हमारे दरमयां।
हम वक्त को किस कदर अपना लेते हैं,
बस "हम" ही नहीं रहते।
बाकि सब रह के गुजरता चला जाता है,
कुछ... ख़ुद की खिची लकीरों के इर्द-गिर्द।
और नाम .....हमारा अपना ही है .....ख़ुद का दिया हुआ....." ज़िन्दगी "।