Sunday, April 18, 2010
सफ़र
न जाने किस बात पे,
वो मुझपर कहर बरसता चला गया।
न मिले जब उसे मेरी आंखों में आँसूं,
वो और सितम ढाता चला गया।
वो कहते हैं कि, हम कहते बहुत हैं।
अब उन्हें क्या बताएं कि,
जब नब्ज़ तक खामोश हो धडकनों की,
तो हर लम्हा आखिरी सा लगता है।
खत्म होता नहीं ये सिलसिला,
एक कदम जो बढे थे एक राह पे।
सुबह से शाम, दिन से महीने-साल गुजरे,
ना जाने कितनी बार उन्हीं गलियों से हम बार बार गुजरे।
पर मेरी हर कोशिश को,
वो नकारता चला गया।
हर बार उसने मुझे हराया,
तो मैं भी कदम बढ़ाता चला गया।
जीत कि फ़िक्र नहीं अब राहों में,
न ही मंजिल पर पहुँचने कि जिद्द है।
कुछ हो न हो पर, सिफ़र,
सफ़र ज़रूर हसीन हो।
दर्द जब हद से बढे तो ज़रूर खुश होना।
किसी ने कहा था, कभी मुझ से।
रात जब भी गहराए,
समझो बस सवेरा होने को है।
फ़िर, किरणें राहों को चूमेंगी,
वक्त के आभाव में खुशियाँ, फ़िर, झूमेंगी।
मदमस्त आँखें फ़िर ललचायेंगे,
कुछ क्षण सोने को।
...........................
इस लिए कहता हूँ, सिफर,
जो हो रहा है... उसे होने दो।
Saturday, April 3, 2010
सबक
Subscribe to:
Posts (Atom)