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Friday, July 31, 2009

मेरी आशाएं... मेरी ज़ंग... मेरा जहाँ...

हाथों में चंद लम्हों की चाह,
पर लम्हे मेरी मर्ज़ी के।
सपनों की एक लम्बी कतार,
पर हर सपने मेरी बेचैनी के।

एक राह क्षितिज तक जाती हुई,
और उस पे मेरी परछाई।
एक बात अधूरी सी,
पूरा होने को अब तक आतुर।

एक साँस... एक मोड़ पे,
एक नज़र गुमसुम सी,
एक रात जो... अब तक।
एक बात छलकते प्यालों से।

एक उम्मीद टूटे पिंजडे सी,
और एक मैं।
और मेरा नीला आसमान,
मेरी आशाएं... मेरी ज़ंग... मेरा जहाँ...

ख़ुद से न जाने कितनी बार,
कितनी बातें कह न सका।
कुछ वक्त गुज़र गया,
तो कभी मैं ने कुछ गुज़ार दिया।

कभी सन्नाटे की चादर में,
कुछ अल्फाज़ फुसफुसाए तो,
कुछ लकीरों ने मुझे बाँध कर,
कुछ पन्नों पे सुला दिया।

धूल चढ़ती गई मेरी आंखों पे,
और सावन में बादल बरसे,
सो बरसे ही।
एक हवा के झोंके ने, एक पल में रुला दिया।

हर बात पे...
कभी "मैंने",
तो कभी खामोशी ने,
टोका और... चुप करा दिया।

जब दर्द हद से बढ़ा,
तो मैंने सब कुछ वैसे ही
लकीरों में बाँध कर,
कुछ पन्नों में दबा दिया।

डरता हूं जब पन्ने,
हिसाब मांगे गे तब क्या होगा?
हर हिसाब कि एक एक किताब,
खुलेगी... तब क्या होगा?

कुछ नहीं, गीले पन्नों के तो फटने कि भी आवाज़ नही होती...
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