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Sunday, May 31, 2009

अपनी ब्लॉग की सुरक्षा कैसे करें?

प्रिय पाठकों,
ब्लॉग शुरु करने के पहले ही दिन, जो सबसे पहली बात दिमाग में कौन्धती है, वो है हमारी अपनी रचनाओं के चोरी होने का डर। हालाँकि, पूरे तरह से सुरक्षित करना तो मुमकिन नहीं, पर हाँ कुछ बातों का धयान रखें तो कभी काम ज़रूर आ सकती हैं।

  1. सब से पहले तो अपनी ब्लॉग पर कॉपी राईट्स होने की बात ज़रूर लिखें। इस के लिए आप http://www.copyscape.com/ का विजेट भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
  2. जितनी जल्दी हो सके, अपने ब्लॉग को किसी डोमेन नाम से रजिस्टर करा लें।
  3. अपने ब्लॉग को गूगल, याहू इत्यादि की खोजी मशीनों पर रजिस्टर ज़रूर करें। इसके अलावा फीड बर्नर, और इस तरह की जितनी भी साइट्स हैं उन सब पर पंजीकृत ज़रूर करें।
  4. वैसे तो हज़ार चीज़ें हैं, जो ये भरोसा दिलाती हैं कि आप का ब्लॉग सुरक्षित है। पर विस्वास मानिये, जहाँ बात साहित्य और कला की आती है वहां चुराने के हज़ार नायाब तरीके भी खुद बखुद आ ही जाते हैं। जैसे, बहुत आसान है आप की रचना को किसी और भाषा में लिख कर कोई अपने नाम से प्रकाशित करवा सकता है, अगर वो आप के देश का हुआ तो शायद कभी आप को पता चल भी जाये, पर अगर किसी और देश का हुआ तो?
  5. तो खैर, ये तय हुआ की पूरी तरह से सुरक्षित नहीं कर सकते आप, अगर आपने अपनी रचना ब्लॉग में डाल दी है। तो फिर क्या? चलिए कुछ कोशिश तो कर सकते हैं, वही करते हैं।
  6. पहले तो ये कैसे जाने की किस साईट की क्या चीज़ें हमारी ब्लॉग से मिलते-जुलते हैं। इस के लिए एक बहुत ही बढ़िया वेबसाइट है : www.copyscape.com , इस पे अपनी ब्लॉग का पता डालें और कुछ ही देर में ये आप को दुनिया के हर उस साईट के उस पन्ने का पता दे देगा जिसके पन्ने आप के ब्लॉग के पन्नों से मिलते हैं।
  7. तो चलिए, अगर आपको पता चल भी गया तो क्या करेंगे?
    • सब से पहले तो उस वेबसाइट के हर उस पन्नों का स्क्रीन शॉट अपने कंप्यूटर पे सुरक्षित कर लें।
    • अब मालूम करें की वो कौन है? उसकी साईट का रजिस्ट्रेशन अगर है, तो रजिस्ट्रार कौन है, और उसका पता क्या है?
    • अब उसे , उसके रजिस्ट्रार को और खोजी कंपनियों को (जैसे गूगल, याहू, इत्यादि ) को पत्र लिखें।
    • पत्र में हर एक चीज़ साफ़-साफ़ लिखें कि, आप कि किस ब्लोग का क्या, उनकी साईट पे बिना इजाज़त है। और आप की ब्लॉग के हर कॉपी राईट्स आप के पास हैं, तो बेहतर है कि जल्द से जल्द इसे अपनी साईट से हटायें नहीं तो आप कानूनी करवाई कर शुरू कर देंगे। पत्र में ये अगर मुमकिन हो तो, ये भी लिखें कि कानून के किस अधिनियम के तहत क्या उलंघन हुआ है और इसका क्या परिणाम उन्हें भोगना पड़ सकता है। उन्हें बताएं कि, अगर ७२ घंटों के अन्दर उन्हों ने कोई कदम नहीं उठाये तो आप इसे यही मानेगे कि वो कानूनी करवाई के लिए तैयार हैं। पत्र में ये भी लिखें की उनके रजिस्ट्रार को भी सूचित कर दिया गया है। और रजिस्ट्रार का पता भी ईमेल के पते में जरूर डालें।
    • गूगल और याहू जैसी कम्पनियाँ भी इस तरह की हरकतों के बिलकुल खिलाफ हैं। उनके कॉपी राइट्स के पन्नों को पढें और अनुसरण करें।

    http://www.google.com/dmca.html
    http://info.yahoo.com/copyright/us/details.html

    • वो भी आपकी मदद ज़रूर करेंगी, ये साबित करने में की आप के ब्लॉग की चीज़ें आप की ही हैं।

    नोट: ऊपर दी गयी सारी बातें कोई कानूनी सलाह बिलकुल नहीं है। पर हाँ, अगर आप को कभी भविष्य में किसी इस तरह की दिक्कत का सामना करना पड़ा तो ज़रूर काम आ सकती हैं।

Monday, May 25, 2009

मुझे याद है ......


मुझे याद है ......
छोटी-छोटी बातों पर,
जब-जब तुम नाराज़ होती थी।
ना जाने कितने दिनों तक,
चार पलकों तले बरसात होती थी।

फ़िर रात के अंधेरे में कभी...
तुम्हारी, अपनी, वो दस्तक...मेरे दरवाज़े पे।
और फ़िर कागज़ का एक पुर्जा,
आधा आंसुओं में लिपटा।
हाथों में लेते ही, पूरा गीला हो जाता था।

आखिरी दिन, जब तुम्हे देखा था,
तुम्हारी, वो नम आँखें, एक पूरी मुस्कान।
और छलछलाते हुए कहना ..... "बस... इतनी सी बात"।
आज भी उनकी सिलवटें मेरी आंखों में जिंदा हैं।

आधी साँसों में,
जहाँ कभी तुम्हे छोड़ा था।
मैं आज भी उन्हीं गलियों के अंधेरों में,
वक्त को मुठ्ठियों में दबाए फिरता हूँ।

आज भी जब मैं, रातों में करवटें बदलता हूँ,
तो तुम से यूँहीं टकरा जाता हूँ।
तुम नहीं हो, पर ...मेरी हथेली में आज भी,
तुम्हारे नर्म हाथों की गर्मी बाकी है कहीं।

सुना है,.......
अब तुम नाराज़ नहीं होती।
हाँ, अब मैं भी नहीं होता हूँ।
कोई फिर शायद,... इतना, अपना हो ही न सका ।

Sunday, May 24, 2009

ख्वाब
















जाने कैसे कैसे ख्वाबों में बसे हैं लोग,
कि, मुर्दों से भी वफ़ा की उम्मीद रखते हैं।
यहाँ तो ज़िन्दगी देखे जन्मों हुए,
पर इन्सान हैं ना, इसलिए...
मुर्दों से भी इन्सानियत की उम्मीद रखते हैं।

Thursday, May 21, 2009

काश... ये मुमकिन होता

काश ये मुमकिन होता,
कि, राहों में मुड़ना आसान होता।

कभी
मैं भी तो, दो अश्क लुटाता,
उन दरख्तों पर, जिन पर आज भी...
मेरे नाम, तुम संग जिंदा हैं।

काश ये मुमकिन होता,
हवाओं में बहना मुनासिब होता, तो...
आज मैं दूरियां कम कर लेता।

वादे
, जो तोड़े तेरी नज़रों में,
वो आज फिर निभाकर, अंधेरे में,
चुपचाप, ... आँखें नम कर लेता।

काश ये मुमकिन होता।

पर फिर, ... एहसास... तेरे होने का मुझमें,
दर्द से भी जुदा करती है।
कि, जान न जाए तू मेरी हालत,
ज़िन्दगी, ... चलती थी,... अब भी चलती है।

Wednesday, May 20, 2009

एक गाँठ...कुछ अपना सा



ज़िन्दगी गाँठों की उलझन बन कर रह गई है
हर एक गाँठ मजबूती का एहसास, तो कहीं...
टूटे होने की कमज़ोर क्ल दिखती है।
कभी ... कुछ एक गाँठ खोलने की चाहत तो होती है, पर...
डरता हूं कि, गाँठें खोलने से रिश्तों के सिरे कहीं खो जायें,
और कभी......................................
.....................ये मुमकिन ही नहीं होता।

Monday, May 18, 2009

Lemon Girl

रक्त अगर इंसानियत की ख़बर देते तो मैं पहचान लेता कि, एक टक की नज़रों से क्या चाहती थी वो। आंखों की सुन्दरता कुछ यूँ थी कि, कशिश सी जगा रही थी मन में,... एक दम शुन्य,... जैसे कुछ ही पल में सब कुछ समा जायेगी। उसके बालों में वो अलड़पन था, जिसकी वास्तविकता का एहसास उसे ख़ुद भी नहीं था....मैंने पढ़ा था ...शायद ...उसमें ही ....ख़ुद।
असहनीय गर्मी में प्लेटफोर्म के पास टोकरे में उम्मीदों कि सेज़ संजोये बैठी थी। देखा तो मैंने भी, वह अभी बचपन के उन क्षणों के इंतज़ार में थी जब सपने हकीक़त के रूप में हर हकीक़त से सपनों को छीन लेते हैं। डर मुझे भी लगा था, पर मैं ने संभल कर आँखें बंद कर लीं। शायद... ठीक सब कि तरह....मुझे भी लगा कि अब मुझे कोई नहीं देख पायेगा।
इंतजार कि सरगर्मी वहां भी थी, जब मैं ने ख़ुद का साथ छोड़ दिया था। आज वही सरगर्मी मुझे उन नन्ही सी आंखों में तैरती नज़र आ रही थी। पीले पीले नीबुओं का ढेर लगाये बैठी थी ...आस थी, कुछ काश से ... तो कुछ आकाश से। आवाज़ रुंध रही थी, जैसे छोटी सी उम्र में परिपक्वता पा ली हो उसने। जिम्मेदारियों से वो डरी नहीं थी, ना ही बोझ से, ... डर था तो केवल भूख कि उस बेचैनी से जिसने न जाने कितनी सुहागिनों के तीज और छठ के व्रत यूँ ही बाल्यावस्था में निचोड़ डाले थे। ...हाँ वहीँ, जहाँ रसभरी जिंदगी निचुडे हुए नीबुओं सी बेकार हो जाती है...ये मैं नहीं कहता समाज कहता है, वही समाज जो कल मेरा था... आज आप का है।

इस जद्दोजहत कि ज़िन्दगी में,
इस कद्र बिकना हो तो बिकुं क्यों?
मौत कत्ल कि क्या बुरी,
जहाँ ज़िन्दगी तो मौत, क्या ग़लत... क्या सही।

फिर, नीबुओं का ढेर था, धूप की चमक और... कीमत?
सिर्फ़ ...आठ आने का एक।

नज़रों में एक नज़र,
निहारती सबकी नज़र,
लालायित, अभिलाषी।
चंद झंकार,...पर इज्ज़त सहित।
छोटी सी उम्र ,...पर उम्र रहित।

वेग था, आक्रोश था, क्रोध की ज्वाला में सराबोर था।
असहाय मेरी आँखें ज्योंही छलकने लगीं
कि, तभी एक डोरी और खिची और...
वो रक्तिम महामाया ओझल हुई।

वक्त से, फिर...
मैं एक बार हार गया।
भाग्य पर जीवित एक साँस और...
ज़िन्दगी के आत्मत्व को मार गया।

Sunday, May 17, 2009

रिश्तों से क्या कहूँ ?

ज़र में भी अब अलफाज़ लड़खड़ाते हैं।
खता अब सज़ा बन चुकी है।
हर मोड़, एक-एक नाते, भूली बिसरी हर वो बातें,
चाहत और फिर एक आहट सी।
कि, अब उन्स के दीपक में भी लौ नहीं।
कि, अब बाती से रौशनी कज़ा बन चुकी है।
रिश्तों से क्या कहूँ?

अलफाज़ अब भी कोरे कागज़ पर हैं।
नज़रें रूकती नहीं, जाने कौन अब आएगा।
सतरंगी आँचल सा साया तो छूट गया।
कि, आकाश का सूनापन शायद अब छाएगा।
रिश्तों से क्या कहूँ?

रस्म धागों की, धागों में बंध चुकी है।
जिस्म का ज़र दहकता है।
कि , धागों से रिश्ते तो टूट चुके।
आज़ मैं पुकारता हूं, तुम आओगे?
कि, गुज़र जाएगा पल-पल ये,
कि, बहुत सहाएगा हर पल ये।
रिश्तों से क्या कहूँ?

वक्त का जिस्म जल तो गया।
कि, मौका परस्त रूह, है बिखरी कहीं।
हर पत्ते तो मेरी शाखों से टूट गए।
पर उन पत्तों कि काली ज़ुबाँ,
अब सच के दर पर मरती नहीं।
रिश्तों से क्या कहूँ?

Friday, May 15, 2009

कुछ भी नहीं

अक्स कोई एक भी यहाँ पूरी नहीं,
पर हर उस एक के बिना ...पूरा कुछ भी तो नहीं।
कुछ ऐसी अधूरेपन की आदत सी है,
कि, जिंदगी को सम्पूर्णता का आभास भी नहीं।
इल्म है सबको, पर अनजान बनने कि आदत सी है,
शायद कभी हम जागेंगे और ...........................कुछ नहीं।

जिम्मेदारियां तो हम सब निभाते हैं
पर जिम्मेदारियों कि जिम्मेदारी का एहसास कहीं भूल जाने कि आदत सी है
फिर बस सब चलता है.......
और अंधों कि भीड़ में एक दूसरे को शाबासी दे खुश कर लेते हैं
क्योंकि....बस, सब चलता है और......................कुछ नहीं।

हर एक चीज़ को बाँट कर,
हम अपने एहसास से नाते तोड़ लेते हैं।
शब्द अब भी वही हैं , पढ़ तो लेते हैं, समझ भी लेते हैं,
पर समझने का एहसास तो अब बचा नहीं,
कुछ लकीरें उकेर, शवेत पन्नों को काला स्याह कर लेते हैं।
क्योंकि .....अब सब चलता है और ....................कुछ भी नहीं।

Sifar

बुत,..... बुत सी रहेगी होकर रस्म,
रेशम के पत्तों पर छलकेंगे जब मेरे नज़्म।
एक-एक एहसास बेकार ही बह जाएगा,
रस्म रेशम सा होकर भी... आख़िर बुत ही रह जाएगा।
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