रक्त अगर इंसानियत की ख़बर देते तो मैं पहचान लेता कि, एक टक की नज़रों से क्या चाहती थी वो। आंखों की सुन्दरता कुछ यूँ थी कि, कशिश सी जगा रही थी मन में,... एक दम शुन्य,... जैसे कुछ ही पल में सब कुछ समा जायेगी। उसके बालों में वो अलड़पन था, जिसकी वास्तविकता का एहसास उसे ख़ुद भी नहीं था....मैंने पढ़ा था ...शायद ...उसमें ही ....ख़ुद।
असहनीय गर्मी में प्लेटफोर्म के पास टोकरे में उम्मीदों कि सेज़ संजोये बैठी थी। देखा तो मैंने भी, वह अभी बचपन के उन क्षणों के इंतज़ार में थी जब सपने हकीक़त के रूप में हर हकीक़त से सपनों को छीन लेते हैं। डर मुझे भी लगा था, पर मैं ने संभल कर आँखें बंद कर लीं। शायद... ठीक सब कि तरह....मुझे भी लगा कि अब मुझे कोई नहीं देख पायेगा।
इंतजार कि सरगर्मी वहां भी थी, जब मैं ने ख़ुद का साथ छोड़ दिया था। आज वही सरगर्मी मुझे उन नन्ही सी आंखों में तैरती नज़र आ रही थी। पीले पीले नीबुओं का ढेर लगाये बैठी थी ...आस थी, कुछ काश से ... तो कुछ आकाश से। आवाज़ रुंध रही थी, जैसे छोटी सी उम्र में परिपक्वता पा ली हो उसने। जिम्मेदारियों से वो डरी नहीं थी, ना ही बोझ से, ... डर था तो केवल भूख कि उस बेचैनी से जिसने न जाने कितनी सुहागिनों के तीज और छठ के व्रत यूँ ही बाल्यावस्था में निचोड़ डाले थे। ...हाँ वहीँ, जहाँ रसभरी जिंदगी निचुडे हुए नीबुओं सी बेकार हो जाती है...ये मैं नहीं कहता समाज कहता है, वही समाज जो कल मेरा था... आज आप का है।
इस जद्दोजहत कि ज़िन्दगी में,
इस कद्र बिकना हो तो बिकुं क्यों?
मौत कत्ल कि क्या बुरी,
जहाँ ज़िन्दगी तो मौत, क्या ग़लत... क्या सही।
फिर, नीबुओं का ढेर था, धूप की चमक और... कीमत?
सिर्फ़ ...आठ आने का एक।
नज़रों में एक नज़र,
निहारती सबकी नज़र,
लालायित, अभिलाषी।
चंद झंकार,...पर इज्ज़त सहित।
छोटी सी उम्र ,...पर उम्र रहित।
वेग था, आक्रोश था, क्रोध की ज्वाला में सराबोर था।
असहाय मेरी आँखें ज्योंही छलकने लगीं
कि, तभी एक डोरी और खिची और...
वो रक्तिम महामाया ओझल हुई।
वक्त से, फिर...
मैं एक बार हार गया।
भाग्य पर जीवित एक साँस और...
ज़िन्दगी के आत्मत्व को मार गया।
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