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Saturday, November 14, 2009

बेनाम रिश्ता


उसकी तन्हाइयों में,
कुछ दिनों से मेरी आवाज़
है।
वो तो चुप
थी,
पर उसके हर बेचैनी का
मुझे एहसास है।

तलाशती है नज़र,
जिन वीरानों
में।
मैं तो सिर्फ़ एक गवाह
हूँ।
चीख, सह सका,
शायद,
तभी आज़ हमराह
हूँ।

शिकवे क्यों हैं, उसके दामन में इतने,
की, उसका साया भी मुझे चुभता है कभी।
पहचान हमारी, हम से ही तो है ये,
क्यों जुदा - जुदा से खयालात हैं फ़िर भी।

दर्द के जो बीज पनप रहे हैं उसके दर् पे,
रिश्ता उनसे कुछ पुराना सा है।
पर अंजाम से हूँ वाकिफ,
तभी तो दिल में डर का एक साया सा है।

सवाल कई उठते हैं मन में,
जिनका दायरा भी कुछ बड़ा
है।
पर नींव भरोसे की है,
शायद,
तभी ये बेनाम
रिश्ता,
अब भी खड़ा है।
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