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Tuesday, July 14, 2009

एक ज़ख्म - कुछ अपना सा













आज
फ़िर किसी ने, मेरे ज़ख्म कुरेदे हैं।
कुछ अश्क मेरी पलकों पर,
कुछ देर ठहर कर...
तेरे इंतज़ार में सूखे हैं।

याद करता नहीं मैं तुझे,
पर अब तलक तेरे वादे निभाता है कोई।
जिन राहों से तुम रुखसत हुए थे,
उन पर, हर रोज़... हर दिन गुजारता है कोई।

रेत के थे रिश्ते, शायद....
पर क़दमों के निशान मैं मिटा न सका।
अपने साए के होते भी,
मैं ख़ुद को धुप से बचा न सका।

कोई आए छू कर जाए,
तो भी अब गम न हो।
आप, आप से हम,
पर फ़िर कभी तुम न हो।
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