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Tuesday, July 14, 2009

एक ज़ख्म - कुछ अपना सा













आज
फ़िर किसी ने, मेरे ज़ख्म कुरेदे हैं।
कुछ अश्क मेरी पलकों पर,
कुछ देर ठहर कर...
तेरे इंतज़ार में सूखे हैं।

याद करता नहीं मैं तुझे,
पर अब तलक तेरे वादे निभाता है कोई।
जिन राहों से तुम रुखसत हुए थे,
उन पर, हर रोज़... हर दिन गुजारता है कोई।

रेत के थे रिश्ते, शायद....
पर क़दमों के निशान मैं मिटा न सका।
अपने साए के होते भी,
मैं ख़ुद को धुप से बचा न सका।

कोई आए छू कर जाए,
तो भी अब गम न हो।
आप, आप से हम,
पर फ़िर कभी तुम न हो।

2 comments:

  1. yeh to padh kar aisa lag raha hai jaise meri life par hi hai.. ab tak to samjh me aa gaya hoga ki kon comments likh raha hai,,

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  2. Haan, itna mushkil nahin hai aap ko pehchanna. Ab, ye aap pe hai ya kisi aur pe, ye faisla main aap pe hi rahne deta huin.
    Waise sachaai to sirf main janta huin, aur woh main batane se raha. Lol

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