अपने हाथों में वक्त की कुछ कालिख ले कर,
कोई सोया था।
सन्नाटे में उसके सपनो की गूँज बड़ी थी।
देखा तो कोने में, आज भी वो तनहा खड़ी थी।
कुलबुलाहट, मन की कुछ बेरुखे शब्दों का आँचल लिए थी।
मैं ने टोका, तो रंग बदल के समझदारी का परिचय दिया उसने।
मैं ने नासमझ बन कर कबूल किया तो,
एक "लकीर" खीच दी उसने हमारे दरमयां।
हम वक्त को किस कदर अपना लेते हैं,
बस "हम" ही नहीं रहते।
बाकि सब रह के गुजरता चला जाता है,
कुछ... ख़ुद की खिची लकीरों के इर्द-गिर्द।
और नाम .....हमारा अपना ही है .....ख़ुद का दिया हुआ....." ज़िन्दगी "।
आज़ादी की 62वीं सालगिरह की हार्दिक शुभकामनाएं। इस सुअवसर पर मेरे ब्लोग की प्रथम वर्षगांठ है। आप लोगों के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष मिले सहयोग एवं प्रोत्साहन के लिए मैं आपकी आभारी हूं। प्रथम वर्षगांठ पर मेरे ब्लोग पर पधार मुझे कृतार्थ करें। शुभ कामनाओं के साथ-
ReplyDeleteरचना गौड़ ‘भारती’
itna kaise pehchan lete ho zindagi k bare me?
ReplyDeleteहम वक्त को किस कदर अपना लेते हैं,
ReplyDeleteबस "हम" ही नहीं रहते।
बाकि सब रह के गुजरता चला जाता है,
कुछ... ख़ुद की खिची लकीरों के इर्द-गिर्द।..log kyun apni marji se hmare ird girg lakeere kheench dete hai....
Thanks to all of you.
ReplyDeleteRaj, chaahe log lakeerein kheeche ya aap khud hi, apne ird gird, dono hi haalaat aap ke hi paida kiye hue hain. Waise, aisa karne ki anumati kisi ko bhi nahin deni chahiye, khud ko bhi nahin....agar un lakeeron mein zindagi ghut rahi ho to.....
Aap ke tippani ke liye shukriya....